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राजद्रोह का कानून खत्म हुआ या नए रूप में और मजबूत होकर आया है?

भारत सरकार राजद्रोह का कानून खत्म करने जा रही है! शुक्रवार (11 अगस्त) को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023 पेश करते हुए कहा, “…इस कानून के तहत, हम राजद्रोह जैसे कानूनों को निरस्त कर रहे हैं…”

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A यानी राजद्रोह का इस्तेमाल भारत सरकार ‘देश की एकता और अखंडता बनाए रखने। राष्ट्र-विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का मुकाबला करने के लिए करती है।’ राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। साथ में जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

अब इस तरह के अपराधों से निपटने के लिए धारा 150 का इस्तेमाल किया जाएगा। प्रस्तावित कानून में ‘देशद्रोह’ शब्द नहीं है। लेकिन व्यापक तौर पर इस कानून का इस्तेमाल उन्हीं अपराधों के लिए होगा, जिसके लिए पहले 124A का होता था। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास या सात साल तक की कैद और जुर्माना दोनों हो सकता है।

विधि आयोग ने राजद्रोह को मजबूत करने को कहा था

प्रस्तावित कानून 22वें विधि आयोग द्वारा जून में की गई सिफ़ारिश से कहीं अधिक व्यापक है। आयोग रोजद्रोह के कानून में प्रोसीजरल सेफगार्ड जोड़ने और जेल की अवधि को बढ़ाने का सुझाव दिया था। आयोग ने “हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले” शब्द जोड़ने की सिफारिश की थी। रिपोर्ट में हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति को “वास्तविक हिंसा या हिंसा के आसन्न खतरे के सबूत के बजाय केवल हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति” के रूप में परिभाषित किया गया था।

क्या है राजद्रोह का कानून?

धारा 124A राजद्रोह को इस प्रकार परिभाषित करती है: “जो कोई भी, बोले गए या लिखे हुए शब्दों से, या संकेतों द्वारा, या दृश्य द्वारा, या अन्य तरीकों से, सरकार के प्रति घृणा फैलाता है या अवमानना करता है या करने का प्रयास करता है, या लोगों उत्तेजित करता है या असंतोष भड़काने का प्रयास करता है। उसे इस कानून के तहत आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसमें जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है…”

हालांकि इसमें कुछ स्पष्टीकरण भी शामिल हैं। जैसे- ‘असंतोष’ की अभिव्यक्ति में विश्वासघात और शत्रुता की सभी भावनाएं शामिल होनी चाहिए। घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किए बिना की अभिव्यक्ति को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।

क्या है इस कानून का इतिहास?

राजद्रोह कानून का मसौदा मूल रूप से साल 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले ने तैयार किया था। तब इंग्लैंड के कानून निर्माताओं का यह मानना था कि सरकार के प्रति ‘नकारात्मक राय’ रखने वालों के विचार सार्वजनिक नहीं होने चाहिए। दिलचस्प यह है कि साल 1860 में जब भारतीय दंड सहिता (IPC) लागू हुआ, तब उसमें राजद्रोह के कानून को शामिल नहीं किया गया था।

बाद में अंग्रेज कानूनी विशेषज्ञों का माना कि यह चूक थी। 1890 में विशेष अधिनियम XVII के माध्यम से IPC में राजद्रोह को धारा 124A के तहत जोड़ा गया। औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार इसका इस्तेमाल अपने खिलाफ भड़के असंतोष से निपटने के लिए करती थी।    

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीतिक असंतोष को दबाने के लिए इस कानून का बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया था। आजादी से पहले कई प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 124A का इस्तेमाल किया गया, जिनमें बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, शौकत और मोहम्मद अली, मौलाना आज़ाद और महात्मा गांधी शामिल हैं। तब राजद्रोह का सबसे उल्लेखनीय मुकदमा – क्वीन एम्प्रेस बनाम बाल गंगाधर तिलक-1898 था।

तिलक से लेकर गांधी तक हुए राजद्रोह का शिकार

राजद्रोह कानून के इस्तेमाल का पहला ज्ञात मामला 1891 में मिलता है। तब एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस पर धारा 124A के तहत मुकदमा चलाया गया था। अन्य प्रमुख उदाहरणों में तिलक और गांधी का मुकदमा शामिल है। इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और विनायक दामोदर सावरकर पर भी राजद्रोह का आरोप लगाया गया था।

1922 में औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए महात्मा गांधी को बंबई में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें छह साल जेल की सज़ा सुनाई गई लेकिन चिकित्सीय कारणों से दो साल बाद रिहा कर दिया गया।

गांधी से पहले, तिलक को राजद्रोह से संबंधित तीन मुकदमों का सामना करना पड़ा और दो बार जेल जाना पड़ा। तीलक,’केसरी’ नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका चलाते थे। साल 1897 में केसरी में एक लेख लिखने के लिए उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन्हें 12 महीने की कैद की सजा सुनाई गई।

1908 में उन पर दोबारा मुकदमा चलाया गया और तब कोर्ट में उनका बचाव मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। लेकिन उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी गई और उन्हें छह साल की सजा सुनाई गई।

इसके बाद भी एक बार उन पर लिखने की वजह से ही राजद्रोह लगा था। तब बंगाल के क्रांतिकारियों की कार्रवाई में मुज़फ़्फ़रपुर में यूरोपीय महिलाओं की जान चली गई थी। तिलक ने अपने लेख में लिखा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह जनता में विद्रोहियों की पार्टी से जुड़े लोगों के खिलाफ नफरत फैलाएगी। ऐसे राक्षसी कृत्यों से इस देश से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना संभव नहीं है। लेकिन अप्रतिबंधित शक्ति का प्रयोग करने वाले शासकों को हमेशा याद रखना चाहिए कि मानवता के धैर्य की भी एक सीमा होती है।”

दिलचस्प बात यह है कि जिस न्यायाधीश डीडी डावर ने दूसरे मुकदमे में तिलक को सजा सुनाई, वह 1897 के मुकदमे में उनका बचाव किया था।

दूसरे देशों में राजद्रोह कानून

यूनाइटेड किंगडम ने साल 2009 में अपने यहां राजद्रोह के कानून को निरस्त कर दिया था। वहां राजद्रोह के कानून को कोरोनर्स एंड जस्टिस एक्ट, 2009 के तहत रखा गया था। यूके की सरकार ने राजद्रोह के कानून को बोलने की आजादी पर हमला मानकर उसे खत्म किया।

संयुक्त राज्य अमेरिका राजद्रोह का कानून अब भी इस्तेमाल किया जा रहा है। वहां इसे Federal Criminal Code, Section 2384 के तहत रखा गया है। हाल में इसका इस्तेमाल कैपिटल हिल पर 6 जनवरी के हमले में शामिल दंगाइयों के खिलाफ किया जा रहा है। अमेरिका में केवल सरकार के खिलाफ बोलने को ही नहीं बल्कि ‘सरकार के संचालन में सीधे हस्तक्षेप करने की साजिश’ को भी राजद्रोह माना जाता है।

ऑस्ट्रेलिया ने 2010 में अपने राजद्रोह कानून को निरस्त कर दिया, और पिछले साल, सिंगापुर ने भी इस कानून को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि कई नए कानून इसके भयावह प्रभावों के बिना राजद्रोह कानून की वास्तविक आवश्यकता को पूरा करने में समर्थ हैं।

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