अयोध्या विवाद: चंद्रशेखर ने बनाया था सुलझाने का प्लान, राजीव गांधी ने RSS को दिया संदेश
चंद्रशेखर को बतौर प्रधानमंत्री सात महीने का संक्षिप्त कार्यकाल (10 नवंबर 1990-21 जून 1991) मिला था। उनकी सरकार को राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था। उनका मानना था कि उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री अयोध्या विवाद को सुलझाने का गंभीर प्रयास किया था। कई राजनीतिक विश्लेषक और नेता भी ऐसा मानते हैं।
अजादी के पहले से चले आ रहे इस विवाद में मस्जिद को बचाने के लिए कुछ मुसलमानों ने मिलकर ‘बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी’ (बी.एम.ए.सी.) का गठन किया था। दूसरी तरफ कुछ हिंदुओं ने राम मंदिर निर्माण के लिए ‘राम जन्मभूमि न्यास’ का गठन किया था।
राज्यसभा के वर्तमान उपसभापति हरिवंश के अनुसार इस मुद्दे से सीधे जुड़े विश्व हिन्दू परिषद तथा बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी (बीएमएसी) के अति आक्रामक नेताओं को नियंत्रण में करने के लिए बतौर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने सख्त रुख दिखाने से भी गुरेज नहीं किया। रवि दत्त वाजपेयी के साथ लिखी अपनी किताब ‘चन्द्रशेखर- द लास्ट आइकॉन ऑफ आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स’ में हरिवंश ने लिखा है, “इस मुद्दे का शांतिपूर्ण हल खोजने के लिए चंद्रशेखर दोनों पक्षों को बातचीत की मेज तक ले आए।”
इस कवायद में चंद्रशेखर ने वरिष्ठ भाजपा नेता और तब राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत, महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता शरद यादव, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को शामिल किया था।
चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसा जिया’ में लिखते हैं, “प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद मेरे सामने तीन बड़े सवाल थे-अयोध्या का मंदिर- मस्जिद विवाद, पंजाब में आतंकवाद और कश्मीर की समस्या। यह बात तो सभी स्वीकार करते हैं कि मुझे अगर दो महीने का वक्त मिल जाता तो मंदिर-मस्जिद विवाद सुलझ गया होता। जनता दल बनने के बाद से ही मैं यह कहता रहा हूं कि नेतृत्व इस सवाल पर ईमानदार नहीं है।”
कवायद का हिस्सा रहे शरद पवार अपनी आत्मकथा ‘अपनी शर्तों पर’ में लिखते हैं, “प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पदभार संभालते ही, इस मसले पर जारी गतिरोध को तोड़ने की पहल की। भैरोंसिंह शेखावत को भाजपा में ‘उदार’ हिन्दू नेता के रूप में देखा जाता था। चन्द्रशेखर और भैरोंसिंह शेखावत के बीच अच्छी मित्रता थी। प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे के हल के लिए संभावित पहलकदमी की दृष्टि से मुझे और भैरोंसिंह शेखावत को दिल्ली बुलाया। उन्होंने शेखावत से बी.एम.ए.सी. के नेताओं के साथ एकांत में बात करने को कहा। मुझे भी ‘राम जन्मभूमि न्यास’ के नेताओं से एकांत में बात करने को कहा गया। ऐसी योजना इसलिए बनाई गई, क्योंकि मुसलमान समुदाय के साथ शेखावत की कुछ एकता थी और राम जन्मभूमि न्यास का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के मोरोपन्त पिंगले कर रहे थे। वह मराठी थे और मैं भी मराठी था। हम लोगों ने तत्काल ही यह कार्य प्रारम्भ कर दिया।”
क्या कह बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और राम जन्मभूमि न्यास को साथ लाए थे चंद्रशेखर?
विश्व हिंदू परिषद उन दिनों आंदोलन की तैयारी में था। वह प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से मिलना भी चाहता था। हालांकि प्रधानमंत्री खुद उनसे मिलने पहुंच गए।
चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “मैं स्वयं उनकी एक मीटिंग में गया। सुरक्षा अधिकारियों ने आपत्ति की। मैंने उनसे कहा कि सब परिचित हैं, मेरे मित्र हैं, मेरे प्रति हिंसा की बात तो छोड़ दीजिए। कोई कठोर बात भी नहीं करेंगे और मैं मीटिंग में गया। मेरे सामने उत्तेजनापूर्ण बात की गई। मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि आपने यह रुख अपनाया तो मेरे लिए कोई विकल्प नहीं बचेगा सिवाय कठोर कदम उठाने के। यह सरकार का कर्तव्य हो जाएगा। मस्जिद को बचाने के लिए जो भी करना होगा, सरकार करेगी। जरूरत पड़ने पर गोली चलानी पड़े तो मुझे कोई हिचक नहीं होगी। आप लोग बातचीत का रास्ता अपनाएं। विश्व हिन्दू परिषद के लोगों का कहना था कि बातचीत के लिए दूसरा पक्ष तैयार नहीं है। मैंने कहा कि यह मेरे ऊपर छोड़िए। मैंने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेताओं से बातचीत की। उनसे खुल कर बात हुई। उनसे मैंने कहा कि हिंदुस्तान में करीब साढ़े सात लाख गांव में हिन्दू-मुसलमान साथ रहते हैं। कोई भी सरकार हर गांव की सुरक्षा के लिए फौज तैनात नहीं कर सकती। जो लोग साम्प्रदायिकता बढ़ाएंगे और गांव-गांव में दंगे करवाएंगे, वे बेगुनाह लोगों की मौत के जिम्मेदार होंगे। आपको तय करना है कि हजारों लोगों की जान जाए या बातचीत से रास्ता निकाला जाए। आप लोग चुन लीजिए, विकल्प ज्यादा नहीं हैं। उन लोगों का कहना था कि विश्व हिन्दू परिषद इसके लिए तैयार नहीं होगी। मैंने विश्व हिन्दू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन को एक साथ बात करके समस्या का हल निकालने के लिए तैयार कर लिया।”
कहां तक पहुंची थी बात?
पवार अपनी आत्मकथा में बताते हैं, “शेखावत ने बी.एम.ए.सी. के नेताओं के साथ अनेक बार वार्ता की। मैंने पिंगले और उनके साथियों के साथ एकांत में कई बैठकें कीं। हम लोग एक कॉमन प्वाइंट पर पहुंच गए थे। इसके बाद दोनों तरफ के पदाधिकारियों के साथ कुछ संयुक्त बैठकें हुईं। दोनों तरफ के लोगों को एक साथ बैठ कर वार्ता के लिए तैयार करने में शेखावत ने महती भूमिका निभाई। मुझे ज्ञात हुआ कि इस प्रक्रिया में उन्होंने आर.एस.एस. वालों को कुछ कठोर शब्द भी कहे।”
तब विवादित ढांचे के एक तरफ राम की मूर्ति रखकर हिंदू प्रार्थना करते थे और दूसरी तरफ मुसलमान नमाज पढ़ते थे। पवार लिखते हैं, “इस बात को ध्यान में रखते हुए इस सुझाव पर जोर दिया गया कि इस विवादित ढांचे को स्मारक के रूप में रखा जाए और हिन्दुओं तथा मुसलमानों, दोनों को अलग- अलग मन्दिर और मस्जिद निर्माण करने और अपने-अपने धार्मिक कार्यों के लिए भूमि आवंटन कर दी जाए। बी.एम.ए.सी. और राम जन्मभूमि न्यास, दोनों पक्षों के नेता इस सुझाव पर सहमत हो गए थे। अब इस बात को आगे बढ़ाना था ताकि लम्बी अवधि से उलझा यह मुद्दा हल हो सके।”
चंद्रशेखर लिखते हैं, “एक स्थिति ऐसी आई कि दोनों पक्ष सहमत थे, समाधान सामने था। उच्चतम न्यायालय के निर्णय को मानने के लिए दोनों पक्ष के लोग तैयार हो गए थे। बाबरी मस्जिद के अनेक लोगों ने कहा था कि अगर यह साबित हो जाए कि वहां कोई मंदिर रहा है तो वे मस्जिद बनाए रखने का आग्रह छोड़ देंगे। मैंने सोचा था कि क्यों न पुरातत्व विभाग से कहें कि वह खुदाई कराकर इसका पता लगाए। विश्व हिन्दू परिषद और बाबरी मस्जिद के लोग खुले आम कुछ कहने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन वे सिद्धांततः मान गए थे कि सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वे मानेंगे। सुप्रीम कोर्ट तीन महीने में फैसला देने के लिए तैयार था। दोनों धर्म के नेताओं का सहयोग निश्चित था। चारों तरफ यह चर्चा चल गई कि अब निर्णय हो जाएगा।”
हरिवंश लिखते हैं कि “देश के तीन प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों से बातचीत के बाद विहिप व बीएमएसी नेता इस विवाद को सर्वोच्च न्यायालय भेजने पर राजी हो गए। यह एक बड़ी और महत्वपूर्ण सफलता थी कि दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट में विवाद का फैसला करा लेने वाली बात मान गए तथा उसके निर्णय को स्वीकार करने की हामी भर ली।”
द इंडियन एक्सप्रेस की कंट्रीब्यूटिंग एडिटर नीरजा चौधरी अपनी नई किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ (How Prime Ministers Decide) में बताती हैं कि कैसे राजीव गांधी ने उस समझौते को विफल करने की कोशिश की जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच (अयोध्या मुद्दे पर) लगभग बन गया था। इसकी एक पृष्ठभूमि है जिसके बारे में नीरजा चौधरी ने अपनी किताब में लिखा है।
दरअसल 1982 से 1984 के बीच राजीव गांधी और आरएसएस प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस के भाई भाऊराव देवरस के बीच तीन बार मुलाकात हुई थी। इन बैठकों को आयोजित कराने वाले मुख्य व्यक्ति इंदिरा के राजनीतिक सचिव एमएल फोतेदार थे। इंदिरा गांधी ने राजीव को इस बारे में सोनिया से बात करने के लिए मना किया था, क्योंकि वह संघ विरोधी थीं।
राजीव गांधी और भाऊराव देवरस की चौथी मुलाकात इंदिरा गांधी की मौत के बाद साल 1991 की शुरुआत में हुई थी, तब राजीव सत्ता से बाहर थे। द इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएट एडिटर मनोज सीजी को दिए इंटरव्यू में नीरजा चौधरी कहती हैं, “जब राजीव गांधी चौथी बार भाऊराव से मिले थे, तब वह केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार को समर्थन दे रहे थे। अपनी मुलाकात में राजीव गांधी ने संघ से कहा कि वे अयोध्या पर चंद्रशेखर के फॉर्मूले का समर्थन न करें। हालांकि तब तक दोनों पक्षों (हिंदू-मुस्लिम) के बीच बातचीत प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ चुकी थी; विहिप और मुस्लिम पक्ष ने इस सफलता का जश्न मनाने के लिए एक साथ रात्रिभोज के बारे में भी सोचा था।”
क्यों सफल नहीं हुए चंद्रशेखर?
भारत के आठवें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर केवल सात माह सत्ता में रहे। शरद पवार समेत कई नेता और विशलेषक यह मानते हैं कि अगर वह कुछ समय और रह जाते तो अयोध्या विवाद का समाधान हो जाता है।
रशीद किदवई अपनी किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ में लिखते हैं, “कहा जाता है कि चंद्रशेखर सरकार द्वारा बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद हल करने के लिए अध्यादेश लाए जाने की बाबत जानकारी मिलने पर कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी व उनके करीबी लोग बेचैन हो गए। उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था कि चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनी एक कमजोर सरकार को इतिहास में इसलिए याद रखा जाए कि उसने देशभर को उद्वेलित कर देने वाले एक विध्वंसक विवाद को सुलझा दिया।”
चंद्रशेखर लिखते हैं, “चारों तरफ यह चर्चा चल गई कि अब निर्णय हो जाएगा। इसी बीच हरियाणा के सिपाहियों पर जासूसी का बहाना बनाकर कांग्रेस ने संकट पैदा किया और सरकार ने त्यागपत्र दे दिया।” दरअसल, कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने राजीव गांधी की जासूसी कराई है।
पवार लिखते हैं, “उस समय के राजनीतिक परिवर्तन ने बातचीत की प्रक्रिया (दोनों पक्षों के बीच) को रोक दिया। मार्च, 1999 में कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार का पतन हो गया। यदि चन्द्रशेखर की सरकार छह माह या इससे कुछ अधिक दिनों तक बनी रहती तो यह विवादित मुद्दा निश्चय ही सुलझा लिया जाता। इस सरकार के गिर जाने के बाद अवरुद्ध हुई प्रक्रिया को दुबारा प्रारम्भ नहीं किया जा सका। (गृहमंत्री रहते हुए शरद पवार ने बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए क्या किया था, यह जानने के लिए लिंक पर क्लिक करें)