शौचालय का इस्तेमाल करने वाले फैला रहे हैं ज्यादा गंभीर गंदगी, ‘खुले में शौच मुक्त’ होना भी एक समस्या!
देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु से लेकर रहन-सहन तक अलग-अलग है। लेकिन सरकारी मदद से बनने वाले शौचालयों की बनावट एक जैसी होती है। कोई विविधता नहीं होती।
साल 2019 में गांधी जयंती (2 अक्टूबर) के अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन कर प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को ‘खुले में शौच मुक्त’ घोषित किया था। खुले में शौच मुक्त भारत का मतलब भारतवासी अब मल त्याग के लिए खेत, सड़क, पटरी आदि पर न जाकर, शौचालय का इस्तेमाल करने लगे हैं। हालांकि यह दावा पूरी तरह सच नहीं है इसकी तस्दीक खुद नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) करता है।
प्रधानमंत्री की घोषणा के तुरंत बाद एनएसएसओ ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि भारत के 71.3 प्रतिशत घरों में ही शौचालय हैं। जब शौचालय ही 100% घरों में नहीं बने तो भारत पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त कैसे हो गया? दूसरी तरफ एक सवाल ये भी है कि क्या शौचालय का इस्तेमाल करने वाले गंदगी नहीं फैला रहे? जवाब है- फैला रहे हैं और इसलिए यह कहा जाने लगा है कि ‘खुले में शौच मुक्त’ होना भी एक नयी समस्या को जन्म दे रहा है।
शौचालय निर्माण की योजनाएंः भारत सरकार 1986 से ही कमजोर तबके के लिए शौचालय बनवाने का कार्यक्रम चला रही है। तब इस योजना को ‘सेंट्रल रूरल सैनिटेशन प्रोग्राम’ के नाम से जाना जाता था। 1999 में इस कार्यक्रम का नाम बदलकर ‘टोटल सैनिटेशन कैंपेन’ रख दिया गया। साल 2011 में इस कार्यक्रम को चलाने वाले विभाग ‘केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता विभाग’ को मंत्रालय का दर्जा दे दिया गया। 2012-13 तक स्वच्छता और शौचालय बनवाने को लेकर सरकार इतनी गंभीर हुई इसके नाम 14,000 करोड़ का बजट कर दिया। साथ ही कार्यक्रम का नाम बदलकर ‘निर्मल भारत अभियान’ कर दिया गया। सन् 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने इस पुराने वादे को नया जामा पहनाते हुए कथित नया अभियान शुरू किया, जिसे आज ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के नाम से जाना जाता है। इस कार्यक्रम की शुरुआत के साथ ही खुले में मल त्याग को खत्म करने की तारीख (2019) तय कर दी गई थी। अब जैसे-जैसे शौचालय बनाने का काम आगे बढ़ रहा है, इसी मंत्रालय से जुड़ी एक दूसरी समस्या विकराल होती जा रही है।
दरअसल 2011 में जब सैनिटेशन से जुड़ा एक पूरा का पूरा मंत्रालय बना तो उसे नाम दिया गया, ‘मिनिस्ट्री ऑफ ड्रिंकिंग वॉटर ऐण्ड सैनिटेशन’ हिन्दी में अनुवाद हुआ पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय है। आपने ध्यान दिया कि मैला निस्तार और पानी की आपूर्ति का कार्य एक ही मंत्रालय करता है। ऐसा सिर्फ भारत में नहीं होता, संयुक्त राष्ट्र संघ में भी पानी और स्वच्छता की बात एक साथ की जाती है और एक ही संस्था में की जाती है।
शौचालय और समस्या: देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु से लेकर रहन-सहन तक अलग-अलग है। लेकिन सरकारी मदद से बनने वाले शौचालयों की रूपरेखा एक जैसी होती है। कोई विविधता नहीं होती। तीन दीवारों, एक छत और एक दरवाजे के बीच मल त्याग के लिए सीट लगा दिया जाता है। वहीं बगल में गड्ढा खोदकर सेप्टिक टैक बना दिया जाता है। ज्यादातर सेप्टिक टैंक नजदीकी जल स्त्रोत से सटे होते हैं। इसका मतलब सेप्टिक टैंक लगातार जल स्त्रोत को दूषित करते रहते हैं। ज्यादातर जगहों पर जल स्तर का ध्यान रखे बिना सेप्टिक टैंक का निर्माण कर दिया जाता है, ऐसे में मल और जल दोनों लगातार संपर्क में रहते हैं।
एक दूसरे तरह का भी शौचालय होता जो सीधे सीवर से जुड़ा होता है। ऐसे शौचालयों का मैला सीवर से होते हुए सीधे नदी में पहुंचता है। देश के ज्यादातर राज्य जिस नदी से पीने का पानी निकालते हैं उसी में सीवर के जरिए अपना मैला डाल देते हैं। उदाहरण के लिए देश की राजधानी दिल्ली को ही ले लीजिए। दिल्ली में यमुना का प्रवेश उत्तरी दिल्ली के वजीराबाद से होता है। यहीं पर एक बांध बनाया गया जिसे वजीराबाद बांध कहा जाता है। दिल्ली सरकार इसी बांध से पानी को रोक कर पीने का पानी यमुना से निकाल लेती है। सिर्फ बरसात के मौसम को छोड़ दें तो वजीराबाद बांध के उत्तर में हमेशा लबालब साफ पानी नजर आता है। यहां से पानी निकालने लेने के बाद आगे कुछ दूर यमुना खाली नजर आती है। फिर आता है नजफगढ़ नाला। इसी नाले से उत्तर-पश्चिम दिल्ली का पूरा मैला पानी यमुना में डाल दिया जाता है। यमुना की कुल लंबाई का सिर्फ दो प्रतिशत दिल्ली में बहता है यानी लगभग 22 किलोमीटर। इतनी सी लंबाई में यमुना 80 फीसदी प्रदूषित कर दी जाती है।
ऐसे में ये कहना अनुचित नहीं होगा कि सरकार का ध्यान खुले में मल त्याग को रोकने के लिए शौचालय बनवाने पर तो है लेकिन उन शौचालयों से होने वाले जल प्रदूषण को रोकने पर नहीं है। सीवर से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के प्रति बुद्धिजीवियों ने बहुत पहले आगाह किया था। स्वच्छता के तमाम आडम्बरों पर चोट करती पत्रकार और लेखक सोपान जोशी की किताब ‘जल थल मल’ में ऐसे ही एक बुद्धिजीवी कार्ल मार्क्स के कथन का जिक्र है। जब लंदन में शौचालयों के मैला पानी को ढोने के लिए सीवर का निर्माण कराया जा रहा था तभी मार्क्स ने लिखा था, ”उपभोग से निकला मैला खेती में बहुत महत्व रखता है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इसकी भव्य बरबादी करती है। मिसाल के तौर पर लंदन में 45 लाख लोगों के मल-मूत्र का कोई और इस्तेमाल नहीं है सिवाये टेम्स नदी में डालने के और वो भी भारी खर्च के बाद”
ऐसे में सवाल उठना लाजीम है कि क्या शौचालयों का निर्माण और उसका इस्तेमाल ही संपूर्ण समाधान है? समाज और सरकार को उन लोगों को देखकर शर्म आती है जो खुले में शौच जाते हैं, लेकिन शौचालय के भीतर बैठकर एक फ्लश से नदियों और तालाबों को प्रदूषित कर देने में कोई शर्म नहीं है? जिस वक्त सभी के पास सीवर से जुड़ा शौचालय होगा, उस वक्त जल स्त्रोतों का क्या होगा? पीने का पानी कहां से आएगा?