धधकते वन, सिसकता पर्यावरण
जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर आज भी संजीदगी का अभाव दिखता है। 2019 में उत्तराखंड में लगी भयावह आग के बाद राष्ट्रीय हरित पंचाट ने कहा भी था कि पर्यावरण मंत्रालय और अन्य प्राधिकरण वनों में आग की घटनाओं को हल्के में लेते हैं।
योगेश कुमार गोयल
गर्मी के मौसम की शुरुआत होते ही भारत के विभिन्न राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक 26 मार्च से एक अप्रैल, 2022 यानी एक ही हफ्ते के भीतर उनतीस राज्यों के जंगलों में आग के साठ हजार से भी ज्यादा छोटे-बड़े मामले सामने आ गए। यह बेहद चिंताजनक है।
सात दिन में जंगलों में आग लगने के मध्यप्रदेश में 17709, छत्तीसगढ़ में 12805, महाराष्ट्र में 8920, ओड़िशा में 7130 और झारखंड में 4684 मामले दर्ज हुए। आगजनी से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मिजोरम और बिहार के बड़े जंगल ज्यादा प्रभावित हुए हैं। बड़े जंगलों में मात्र आठ दिनों में आग की 1230 घटनाएं सामने आईं। फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बढ़ते पारे के साथ जंगलों में आग के हर घंटे औसतन 234 मामले दर्ज हो रहे हैं।
गौरतलब है कि हाल में राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में लगी भयानक आग पर कई दिनों की कड़ी मशक्कत के बाद काबू पाया जा सका। जम्मू-कश्मीर के रियासी जिले के अलावा हिमाचल में भी आग से कई एकड़ जंगल तबाह हो गए। मध्यप्रदेश के उमरिया टाइगर रिजर्व में महज दस दिनों में ही वनों में 121 स्थानों पर आग लगी। उत्तराखंड में तो वनों के सुलगने का सिलसिला जारी है, जहां 15 फरवरी से अब तक आग की सैकड़ों घटनाओं में 250 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार गर्मियों में जंगलों में आग तेजी से फैलती है। इस वक्त जिस तरह का मौसम है, उसमें यह खतरा और बढ़ जाता है। इस वर्ष मार्च में वर्षा में 71 फीसदी की कमी दर्ज की गई। यही कारण है कि तेजी से बढ़ते पारे के कारण बारिश की कमी से वनों में छोटे जलाशयों का अभाव हो गया और आग की घटनाएं बढ़ रही हैं।
दरअसल, जंगलों का पूरी तरह सूखा होना आग लगने के खतरे को बढ़ा देता है। कई बार जंगलों की आग जब आसपास के गांवों तक पहुंच जाती है, तो स्थिति काफी भयवाह हो जाती है। पिछले साल उत्तराखंड के जंगलों में लगी ऐसी ही भयानक आग में अल्मोड़ा के चौखुटिया में छह गौशालाएं, लकड़ियों के टाल सहित कई घर जल कर राख हो गए थे और वहां हेलीकाप्टरों की मदद से आग बुझाई जा सकी थी।
जंगलों में आग के कारण वनों के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को भारी नुकसान होता है। प्राणी सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में तो आग के कारण जीव-जंतुओं की साढ़े चार हजार से ज्यादा प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। वनों में आग से पर्यावरण के साथ-साथ वन संपदा का जो भारी नुकसान होता है, उसका खमियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ता है और ऐसा नुकसान साल-दर-साल बढ़ता ही जाता है।
पिछले चार दशकों में भारत में पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के खत्म हो जाने के अलावा पशु-पक्षियों की संख्या भी घट कर एक तिहाई रह गई है और इसके विभिन्न कारणों में से एक कारण जंगलों की आग रही है। जंगलों में आग के कारण वातावरण में जितनी भारी मात्रा में कार्बन पहुंचता है, वह कहीं ज्यादा बड़ा और गंभीर खतरा है।
देशभर में वन क्षेत्रों में आग से वन संपदा को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए उपग्रहों से सतत निगरानी के अलावा अन्य तकनीकों के इस्तेमाल के बावजूद आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2017 से 2019 के बीच तीन वर्षों के दौरान जंगलों में आग लगने की घटनाएं तीन गुना तक बढ़ गईं। 2016 में देशभर के जंगलों में आग लगने की सैंतीस हजार से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई थीं, जो 2018 में बढ़ कर एक लाख से ऊपर निकल गईं।
भारतीय वन सर्वेक्षण ने वर्ष 2004 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा के उपग्रह की मदद से राज्य सरकारों को जंगल में आग की घटनाओं की चेतावनी देना शुरू किया गया था। वर्ष 2017 में सेंसर तकनीक की मदद से रात में भी ऐसी घटनाओं की निगरानी शुरू की गई। आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जनवरी 2019 में व्यापक वन अग्नि निगरानी कार्यक्रम शुरू कर राज्यों के निगरानी तंत्र को मजबूत करने की पहल भी की गई।
हालांकि इन कदमों से कुछ राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं कम करने में थोड़ी सफलता तो मिली, लेकिन उत्तराखंड सहित कुछ राज्यों में हालात अभी भी सुधरे नहीं हैं। तमाम तकनीकी मदद के बावजूद जंगलों में हर साल बड़े स्तर पर लगती भयानक आग जब सब कुछ निगलने पर आमादा दिखाई पड़ती है और वन विभाग बेबस नजर आता है, तो चिंता बढ़नी लाजिमी है।
ज्यादा चिंता की बात यह है कि जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर आज भी संजीदगी का अभाव दिखता है। 2019 में उत्तराखंड में लगी भयावह आग के बाद तो राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) को भी सख्त टिप्पणी करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। तब एनजीटी ने कहा था कि पर्यावरण मंत्रालय और अन्य प्राधिकरण वनों में आग की घटनाओं को हल्के में लेते हैं। कई बार जंगलों में आग प्राकृतिक तरीके से नहीं लगती, बल्कि पशु तस्कर भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं।
मध्यप्रदेश के जंगलों में लोग महुआ निकालने के लिए झाड़ियों में आग लगाते हैं। अगर प्राकृतिक तरीके से आग लगने वाली घटनाओं की बात करें तो मौसम में बदलाव, सूखा, जमीन का कटाव इसके प्रमुख कारण हैं। विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में तो चीड़ के वृक्ष बहुतायत में होते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे वनों का कुप्रबंधन ही मानते हैं कि देश का करीब 17 फीसदी वन क्षेत्र चीड़ वृक्षों से ही भरा पड़ा है। दरअसल, कमजोर होते वन क्षेत्र में इस प्रकार के पेड़ आसानी से पनपते हैं।
चीड़ के वृक्षों का सबसे बड़ा नुकसान यही है कि एक तो ये बहुत जल्दी आग पकड़ लेते हैं और दूसरा यह कि ये अपने क्षेत्र में चौड़ी पत्तियों वाले अन्य वृक्षों को पनपने नहीं देते। चूंकि चीड़ के वनों में नमी नहीं होती, इसलिए जरा-सी चिंगारी भी ऐसे वनों को राख कर देती है। अकेले उत्तराखंड के जंगलों की बात करें, तो प्रतिवर्ष वहां औसतन करीब 23.66 लाख मीट्रिक टन चीड़ की पत्तियां गिरती हैं, जो आग के फैलाव का बड़ा कारण बनती हैं। जंगलों में इन पत्तियों की परत के कारण जमीन में बारिश का पानी नहीं जा पाता। हालांकि चीड़ की पत्तियों को संसाधन के तौर पर लेते हुए इनका उपयोग बिजली, कोयला आदि बनाने में करने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इस दिशा में अभी काफी कुछ करने की जरूरत है।
भारत में जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर आसानी से काबू पाने में विफलता का एक बड़ा कारण यह भी है कि वन क्षेत्रों में वनवासी अब वन संरक्षण के प्रति उदासीन हो चले हैं। इसकी वजह काफी हद तक नई वन नीतियां भी हैं। हालांकि वनों के संरक्षण और उनकी देखभाल के लिए हजारों वनरक्षक नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगलों की हिफाजत करना इनके लिए इतना सहज और आसान नहीं होता।
इसलिए जरूरी यही है कि वनों के आसपास रहने वालों और उनके गांवों तक जन-जागरूकता अभियान चला कर वनों से उनका रिश्ता कायम करने के प्रयास किए जाएं, ताकि वे वनों को अपने सुख-दुख का साथी समझें और इनके संरक्षण के लिए हर पल साथ खड़े नजर आएं।